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श्री दिगम्बर जैन नया मन्दिर जी धर्मपुरा, चाँदनी चौक, दिल्ली -6 का इतिहास

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यह दो मंजिला मन्दिर तेरह पंथ शुद्ध आम्नाय का मन्दिर मुगल काल के अंत में शाही कोषाध्यक्ष लाला हरसुख राय जी ने एक विशाल और अलंकृत दिगम्बर जैन मंदिर का निर्माण कराया, जिसे श्री दिगम्बर जैन नया मंदिर के नाम से जाना जाता है। मन्दिर का निर्माण विक्रम संवत् 1857 (सन् 1800) में प्रारम्भ हुआ था और वैशाख सुदी ३ विक्रम संवत् 1864 (सन् 1807) में इसकी प्रतिष्ठा हुई। इसका निर्माण कार्य 7 वर्ष में पूरा हुआ। यह मन्दिर कारीगरी का उत्कृष्ट नमूना है। इसमे बेहद सजे हुए दरवाजे से प्रवेश किया जाता हैं। मन्दिर के मुख्य कक्ष में गोलाकार गुम्बद बना हुआ है। हॉल के स्तम्भ पर उत्कृष्ट भीति चित्र बने है।


विशेषता

इस मन्दिर जी के भवन में किसी भी प्रकार की लाइट नही है, व दीपक भी नही जलता, इस मन्दिर जी के भवन में अभिषेक, पूजा पाठ आदि सभी धार्मिक कार्य सूर्य की रोशनी में किये जाते है। यह मंदिर सांय काल मे नहीं खुलता।

उस काल में इसके निर्माण कार्य पर आठ लाख रुपये व्यय हुए थे।  मन्दिर की मूल वेदी मकराने के संगमरमर की बनी हुई है। मूलनायक भगवान आदिनाथ (विक्रम संवत् 1664 ) की प्रतिमा संगमरमर की 10 फुट ऊंची वेदी में विराजमान है। जिस कमलासन पर यह प्रतिमा विराजमान है, उसकी कीमत दस हजार रुपये तथा वेदी की लागत सवा लाख रुपये बतायी जाती है। कमल के नीचे संगमरमर के पत्थर में चारों दिशाओं की ओर मुख किये हुए चार सिंहों के जोड़े बने हुए हैं। इनके मूंछों के बालों की बारीक कारीगरी दर्शनीय है। वेदी में बहुमूल्य पाषाण की पच्चीकारी और बेलबूटों का अनुपम अलंकरण इतना कलापूर्ण और बारीक किया गया है, जिसे देखने के लिए देश और विदेश के अनेक कलामर्मज्ञ आते रहते हैं और उसे देखकर आश्चर्य करते हैं। वेदी के चारों ओर दीवारों पर जैन कथानकों को लेकर कलापूर्ण स्वर्णखचित चित्रांकन किया गया है।

 
सर्व प्रथम इस मन्दिर में एक वेदी थी। बाद में एक वेदी उन प्रतिमाओं के लिए बनायी गयी, जिनकी रक्षा गदर के जमाने में की गयी थी। बाद में मूल वेदी के दायीं और बायीं ओर के दालान में दो वेदियाँ और बनायी गयीं । इन वेदियों में नीलम मरकत की तथा पाषाण की विक्रम संवत् 1112 तक की प्रतिमाएं हैं। एक छत्र स्फटिक का बना हुआ है। यह दिल्ली का प्रथम शिखर बन्द मन्दिर है। इस मन्दिर के निर्माता लाला हरसुखरायजी ने शिखर के लिए बादशाह से विशेष आज्ञा ली थी। तब शिखर बन सका था।
 

अन्तिम वेदी में कुल 49 प्रतिमाएं विराजमान हैं। बायीं ओर तीन पहलू वाली काले पाषाण की एक प्रतिमा है। इसमें दो ओर एक पद्मासन और एक खड्गासन प्रतिमाएं है। इसके ऊपर का लेख इस प्रकार है --- संवत् 153 माघ शुक्ला 10 चन्द्रे । दूसरी ओर भी यही लेख है । पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनुसार यह संवत् 1253 होना चाहिए। इसी वेदी पर दायीं ओर ऐसे ही पाषाण का एक शिलाफलक तीन पहलूवाला है। इसके ऊपर छोटा-सा शिखर बना हुआ है। इसमें बीच में पद्मासन तीर्थकर प्रतिमा है। इधर-उधर दोनों पहलुओं पर एक-एक खड्गासन मूर्ति है। दायीं ओर पद्मासन मूर्ति के ऊपर हाथी की सूंड़ बनी हुई है। कहा जाता है कि ये दोनों शिलाफलक महरौली से लाये गये थे, वहाँ सम्भवतः प्राचीन काल में जैन मन्दिर था। इसी वेदी पर एक खड्गासन मूर्ति संवत् 1123 की है। यह गहरे कत्थई रंग की १ फुट अवगाहना की है।

 
वेदियों के अतिरिक्त कमरे में आधुनिक काल का एक सहस्रकूट चैत्यालय है। जिसकी चारों दिशाओं में एक शिला पर 1008 प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं।
मन्दिर के प्रांगण में लगभग 15 साल से मासिक विधानों की श्रंखला चल रही है।
मन्दिर जी के प्रांगण में 24 दरवाजे (द्वार) है, विधान वाले दिन इन 24 दरवाजो पर  चौबीसों तीर्थंकर के नाम एवं चिन्ह वाले पर्दे लगाये जाते है।
 

इस मन्दिर में शास्त्र भण्डार भी है, शास्त्रों का संग्रह सुन्दर है, एवं चाँदी के तत्वार्थ सूत्र भी है।मन्दिर के साथ ही धर्मशाला, शिशु सदन, प्राइमरी स्कूल, लड़कियों का स्कूल है। जैन मित्र-मण्डल द्वारा संचालित वर्धमान जैन पुस्तकालय भी यहीं पर है।

 

नया मंदिर पुस्तक संग्रह में आचार्य जिनसेना के महा-पुराण की एक दुर्लभ सचित्र पांडुलिपि शामिल है। सन् 1420 की यह पांडुलिपि 15वीं शताब्दी की शुरुआत में जैन (और भारतीय) कला का एक दुर्लभ जीवित उदाहरण है।

श्री दिगम्बर जैन नया मन्दिर जी धर्मपुरा, चाँदनी चौक, दिल्ली -6 का इतिहास

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यह दो मंजिला मन्दिर तेरह पंथ शुद्ध आम्नाय का मन्दिर मुगल काल के अंत में शाही कोषाध्यक्ष लाला हरसुख राय जी ने एक विशाल और अलंकृत दिगम्बर जैन मंदिर का निर्माण कराया, जिसे श्री दिगम्बर जैन नया मंदिर के नाम से जाना जाता है। मन्दिर का निर्माण विक्रम संवत् 1857 (सन् 1800) में प्रारम्भ हुआ था और वैशाख सुदी ३ विक्रम संवत् 1864 (सन् 1807) में इसकी प्रतिष्ठा हुई। इसका निर्माण कार्य 7 वर्ष में पूरा हुआ। यह मन्दिर कारीगरी का उत्कृष्ट नमूना है। इसमे बेहद सजे हुए दरवाजे से प्रवेश किया जाता हैं। मन्दिर के मुख्य कक्ष में गोलाकार गुम्बद बना हुआ है। हॉल के स्तम्भ पर उत्कृष्ट भीति चित्र बने है।


विशेषता

इस मन्दिर जी के भवन में किसी भी प्रकार की लाइट नही है, व दीपक भी नही जलता, इस मन्दिर जी के भवन में अभिषेक, पूजा पाठ आदि सभी धार्मिक कार्य सूर्य की रोशनी में किये जाते है। यह मंदिर सांय काल मे नहीं खुलता।

उस काल में इसके निर्माण कार्य पर आठ लाख रुपये व्यय हुए थे।  मन्दिर की मूल वेदी मकराने के संगमरमर की बनी हुई है। मूलनायक भगवान आदिनाथ (विक्रम संवत् 1664 ) की प्रतिमा संगमरमर की 10 फुट ऊंची वेदी में विराजमान है। जिस कमलासन पर यह प्रतिमा विराजमान है, उसकी कीमत दस हजार रुपये तथा वेदी की लागत सवा लाख रुपये बतायी जाती है। कमल के नीचे संगमरमर के पत्थर में चारों दिशाओं की ओर मुख किये हुए चार सिंहों के जोड़े बने हुए हैं। इनके मूंछों के बालों की बारीक कारीगरी दर्शनीय है। वेदी में बहुमूल्य पाषाण की पच्चीकारी और बेलबूटों का अनुपम अलंकरण इतना कलापूर्ण और बारीक किया गया है, जिसे देखने के लिए देश और विदेश के अनेक कलामर्मज्ञ आते रहते हैं और उसे देखकर आश्चर्य करते हैं। वेदी के चारों ओर दीवारों पर जैन कथानकों को लेकर कलापूर्ण स्वर्णखचित चित्रांकन किया गया है।

 
सर्व प्रथम इस मन्दिर में एक वेदी थी। बाद में एक वेदी उन प्रतिमाओं के लिए बनायी गयी, जिनकी रक्षा गदर के जमाने में की गयी थी। बाद में मूल वेदी के दायीं और बायीं ओर के दालान में दो वेदियाँ और बनायी गयीं । इन वेदियों में नीलम मरकत की तथा पाषाण की विक्रम संवत् 1112 तक की प्रतिमाएं हैं। एक छत्र स्फटिक का बना हुआ है। यह दिल्ली का प्रथम शिखर बन्द मन्दिर है। इस मन्दिर के निर्माता लाला हरसुखरायजी ने शिखर के लिए बादशाह से विशेष आज्ञा ली थी। तब शिखर बन सका था।
 

अन्तिम वेदी में कुल 49 प्रतिमाएं विराजमान हैं। बायीं ओर तीन पहलू वाली काले पाषाण की एक प्रतिमा है। इसमें दो ओर एक पद्मासन और एक खड्गासन प्रतिमाएं है। इसके ऊपर का लेख इस प्रकार है --- संवत् 153 माघ शुक्ला 10 चन्द्रे । दूसरी ओर भी यही लेख है । पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनुसार यह संवत् 1253 होना चाहिए। इसी वेदी पर दायीं ओर ऐसे ही पाषाण का एक शिलाफलक तीन पहलूवाला है। इसके ऊपर छोटा-सा शिखर बना हुआ है। इसमें बीच में पद्मासन तीर्थकर प्रतिमा है। इधर-उधर दोनों पहलुओं पर एक-एक खड्गासन मूर्ति है। दायीं ओर पद्मासन मूर्ति के ऊपर हाथी की सूंड़ बनी हुई है। कहा जाता है कि ये दोनों शिलाफलक महरौली से लाये गये थे, वहाँ सम्भवतः प्राचीन काल में जैन मन्दिर था। इसी वेदी पर एक खड्गासन मूर्ति संवत् 1123 की है। यह गहरे कत्थई रंग की १ फुट अवगाहना की है।

 
वेदियों के अतिरिक्त कमरे में आधुनिक काल का एक सहस्रकूट चैत्यालय है। जिसकी चारों दिशाओं में एक शिला पर 1008 प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं।
मन्दिर के प्रांगण में लगभग 15 साल से मासिक विधानों की श्रंखला चल रही है।
मन्दिर जी के प्रांगण में 24 दरवाजे (द्वार) है, विधान वाले दिन इन 24 दरवाजो पर  चौबीसों तीर्थंकर के नाम एवं चिन्ह वाले पर्दे लगाये जाते है।
 

इस मन्दिर में शास्त्र भण्डार भी है, शास्त्रों का संग्रह सुन्दर है, एवं चाँदी के तत्वार्थ सूत्र भी है।मन्दिर के साथ ही धर्मशाला, शिशु सदन, प्राइमरी स्कूल, लड़कियों का स्कूल है। जैन मित्र-मण्डल द्वारा संचालित वर्धमान जैन पुस्तकालय भी यहीं पर है।

 

नया मंदिर पुस्तक संग्रह में आचार्य जिनसेना के महा-पुराण की एक दुर्लभ सचित्र पांडुलिपि शामिल है। सन् 1420 की यह पांडुलिपि 15वीं शताब्दी की शुरुआत में जैन (और भारतीय) कला का एक दुर्लभ जीवित उदाहरण है।


fmd_good 2515, Dharampura, Chandni Chowk, Delhi, 110006

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सुबह: 5:30 AM - 11:30 AM

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