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On the auspicious occasion of Shrutpanchami, Shrutaskandha Yantra was duly installed...

Rajgriha (Nalanda/Bihar) :- Acharya Mahavir Kirti Digambar Jain Shrutpanchami Mahaparv was celebrated on Saturday in Saraswati Bhavan. On this occasion, worship of Dev Shastra Guru by worshiping Shastra and Vagdevi, Shrutapanchami fasting worship, followed by Samuchaya Chaubisi worship, Jinvani Mata aarti was performed. The Shrutaskandha Yantra came to Rajgriha at the time of Panch Kalyanak Pratishthan at Sammedshikhar ji pilgrimage under the blessings of Muni Shri 108 Arijit Sagar Ji Maharaj, the most influential disciple of Acharya Vishuddha Sagar Ji Maharaj, which was carried out with full rituals on the auspicious occasion of Shrutpanchami festival at Saraswati Bhawan, Rajgir. It has been placed in the Jinwani temple. After the installation of Shrutaskandha Yantra, all the devotees chanted Jinvani Mata and Jalabhishek of the yantra was done and before that the 20th Tirthankar Lord Munisuvratnath Swami's feet were consecrated, worshiped and the idol of Acharya Mahavirkirti Maharaj was worshipped and after the aarti, Vagdevi was worshipped. Worshiped. Shrutpanchami festival was worshiped by wrapping Maa Jinvani in a new Weston and decorating it in a beautiful way.

Shrutpanchami festival has been given special importance in Jainism...

Shrutpanchami Mahaparva is given special importance in Jainism. On this day the first scripture of Jain tradition was written, so this great festival is organized with gaiety all over the world, procession of scriptures is taken out from place to place, special worship of scriptures is done. Plans for publication of unpublished ancient texts are implemented.

Shruta tradition was started after Lord Mahavir Swami...

The Shruta tradition of Dwadshang speech of Tirthankara Lord Mahavira continued orally for 683 years after his Nirvana. There was no Jain literature available from the point of view of the first Dravyashruta of Lord Mahavira. But the pre-existing knowledge store of Lord Mahavir was given the name of the East in the Shramana tradition and the last knower of all the East was Shrutkevali Bhadrabahu. Prior to this, it was kept alive by the Acharyas. The Tirthankars only preached and their Ganadhars take it and explain it to everyone. The speech that came out of his mouth for public welfare was very simple and in Prakrit language, which was spoken at that time.
If there was no Shrut, today ignorance would be ignorance everywhere. It was on this day that the work of keeping Jinavani safe for thousands of years was done. Jains celebrate Shrutapanchami as the birthday of Jinavani.
All Jain religious and Jain society were present on this occasion.

Ravi Kumar Jain - Rajgir


2 years ago

By : Acharya Mahavirkirti Digamber Jain Saraswati Bhawan

श्रुतपंचमी के पावन अवसर पर श्रुतस्कन्ध यंत्र की हुई विधिवत स्थापना...

राजगृह (नालन्दा/बिहार) :- आचार्य महावीर कीर्ति दिगम्बर जैन सरस्वती भवन में शनिवार को श्रुतपंचमी महापर्व मनाया गया। इस अवसर पर शास्त्र एवं वाग्देवी की आराधना कर देवशास्त्र गुरु की पूजा, श्रुतपंचमी व्रत पूजन, समुच्चय चौबीसी पूजा के पश्चात जिनवाणी माता की आरती की गई। आचार्य विशुद्ध सागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य मुनि श्री 108 अरिजित सागर जी महाराज के मंगल सानिध्य में सम्मेदशिखर जी तीर्थ पर हुए पंच कल्याणक प्रतिष्ठा के समय श्रुतस्कन्ध यंत्र राजगृह आयी थी जिसे पूरे विधिविधान के साथ श्रुतपंचमी पर्व के पावन अवसर पर सरस्वती भवन, राजगीर के जिनवाणी मन्दिर में विराजमान कर दी गयी है। श्रुतस्कन्ध यंत्र स्थापना के पश्चात सभी भक्तों के द्वारा जिनवाणी माता की जयकारे लगाए गए तथा यंत्र का जलाभिषेक किया गया एवं इसके पूर्व 20वें तीर्थंकर भगवान मुनिसुव्रतनाथ स्वामी के चरण का अभिषेक, पूजन एवं आचार्य महावीरकीर्ति महाराज की प्रतिमा का प्रक्षाल- पूजन तथा आरती के पश्चात वाग्देवी की आराधना की गयी। माँ जिनवाणी को नए वेस्टन में लपेट कर उसे खूबसूरत तरीके से सजाकर श्रुतपंचमी पर्व की आराधना की गई।

जैन धर्म में श्रुतपंचमी पर्व दिया गया है विशेष महत्व...

जैन धर्म में श्रुतपंचमी महापर्व को विशेष महत्व दिया जाता है। इस दिन जैन परंपरा का प्रथम ग्रंथ लिपिबद्ध किया गया था, इसलिए इस महापर्व को पूरे विश्व में हर्षोल्लास पूर्वक आयोजित कर जगह-जगह शास्त्रों की शोभायात्रा निकाली जाती है, शास्त्रों की विशेष पूजा की जाती है। अप्रकाशित प्राचीन ग्रंथों के प्रकाशन की योजनायें क्रियान्वित होती हैं।

भगवान महावीर स्वामी के बाद श्रुत परम्परा की हुई थी शुरुआत...

तीर्थंकर भगवान महावीर की द्वादशांग वाणी की श्रुत परम्परा उनके निर्वाण पश्चात् 683 वर्षों तक मौखिक रूप से चलती रही। भगवान महावीर के पहले द्रव्यश्रुत की दृष्टि से कोई जैन साहित्य उपलब्ध नही थे। लेकिन भगवान महावीर के पूर्व प्रचलित ज्ञान भंडार को श्रमण परम्परा में पूर्व की संज्ञा दी गई थी तथा समस्त पूर्वो के अंतिम ज्ञाता श्रुतकेवली भद्रबाहु थे। इसके पूर्व आचार्यों के द्वारा जीवित रखा गया था ।तीर्थंकर केवल उपदेश देते थे और उनके गणधर उसे ग्रहण कर सभी को समझाते हैं। उनके मुख से जो वाणी जनकल्याण के लिए निकलती थी वह अत्यंत सरल और प्राकृत भाषा में ही होती थी जो उस समय समानता बोली जाती थी।
श्रुत न होता तो आज सब जगह अज्ञानता ही अज्ञानता होती। आज ही के दिन हजारों वर्ष के लिए जिनवाणी सुरक्षित रखने का कार्य हुआ था। जैन धर्मावलंबी श्रुतपंचमी को जिनवाणी के जन्मदिन के रूप में मनाते है।
इस अवसर पर सभी जैन धर्मावलंबी एवं जैन समाज उपस्थित हुए।

रवि कुमार जैन - राजगीर


2 years ago

By : Acharya Mahavirkirti Digamber Jain Saraswati Bhawan