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अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रि-परिषद् का इतिहास

अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रि-परिषद् दिगम्बर जैन परम्परा में देव-शास्त्र-गुरु, जैनधर्म, दर्शन और संस्कृति के संरक्षण तथा दिगम्बर जैन आर्षमार्गीय साहित्य के प्रकाशन एवं प्रचार-प्रसार में समर्पित आर्ष परम्परा के अनुयायी विद्वानों की एक जागरुक संस्था है, जिसे अद्यावधि अनेक मुनिराजों का आशीर्वाद प्राप्त है।

1. उद्भव एवं विकास

17 वीं - 18 वीं शताब्दी में मुगलों के प्रभाव से दिगम्बर जैन मुनियों का विहार अवरुद्ध होने से सर्वज्ञ की देशना जन - जन तक नहीं पहुँच पा रही थी। लोगों में समयानुकूल स्वच्छन्दता आने लगी, सामाजिक विकृतियों का प्रादुर्भाव होने लगा, तब कुछ सुधारभासियों ने विजातीय विवाह, विधवा विवाह, स्पृश्यास्पृश्य भेद, वर्णव्यवस्था आदि विषयों पर ऐकान्तिक विचारों का आग्रह किया तो 19 वीं शताब्दी के अंत एवं 20 वीं शताब्दी के प्रथम चरण में तात्कालीन जैनागम के प्रबुद्ध विद्वान् मनीषियों ने शास्त्र सम्मत विचारधारा रखी और आगमानुसार श्रावकाचार के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक गतिविधियों के सुधार करने का संकल्प लिया। अनुकूल विचारधारा वाले विद्वानों ने 1904 में संगठित होकर देव-शास्त्र-गुरु के संरक्षण का कार्य किया इस संगठन का नाम अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद् गया।

2. परिषद् के ह्लास एवं उत्कर्ष का काल :

सन् 1940 से 1965 तक लगभग 25 वर्ष का समय देश में आजादी की लड़ाई, स्वतंत्रता, कानून व्यवस्था एवं आर्थिक संकट के दौर का समय था इस समय सामाजिक, धार्मिक, एवं राजनैतिक व्यवस्थाएँ गड़बड़ा गईं थी। अतः परिषद् की गतिविधियाँ भी मंदता को प्राप्त हो गईं ।

इसका कारण कुछ तो विद्वानों का निधन था तथा उस समय राजनैतिक आन्दोलन भी इतने उग्र हो गये थे की लोगों को सामाजिक समस्याओं पर सोचने का अवसर ही नहीं था। सन् 1939 में द्वितीय महायुद्ध छिड़ गया। हिटलर अनेक योरोपीय देशों को दबाता हुआ आगे बढ़ रहा था। उसने आनन - फानन में फ्रांस पर अधिकार किया, नार्वे में सेना उतार दी, इटली की कमर तोड़ दी, इंग्लैंड पर भीषण बम गिराये। इस आतंक से दुनिया दहल रही थी। फ्रांस पर कब्जा करने के बाद तो भारत में यह आशंका होने लगी थी। वह यहाँ भी बमबारी करेगा। इन सब कारणों से शास्त्रि-परिषद् की गतिविधियाँ कुछ क्षीण हो गई थी।

समाज में सुधारभासियों ने पुनः जोर पकड़ा। कुछ सुधारवाद के नाम पर स्वच्छन्द बन गये। आर्षमार्ग की अवहेलना होनी लगी, तब श्री इन्द्रलाल शास्त्री की अध्यक्षता तथा श्री पं. अजितकुमारजी शास्त्री के महामन्त्रित्व में शास्त्रि-परिषद् ने पुनः जोर पकड़ा और समाज को जाग्रत किया। ऐकान्तिक विचारधाराओं का डटकर विरोध हुआ। तदन्तर डॉ. लालबाहदुर शास्त्री ने अध्यक्ष पद तथा श्री पं. बाबूलाल जमादार ने महामंत्री पद सम्हाल कर शास्त्रि परिषद् में पुनः प्राण फूंके ।

 

3. अधिवेशन

परिषद् के विद्वानों को भारत की सम्पूर्ण जैन समाज में बहुमान प्राप्त है जगह - जगह परिषद् का अधिवेशन बुलाकर समाज गौरवान्वित होती है। 1924 ई. में पं. धन्नालाल जी की अध्यक्षता में बेलगाँव (कर्नाटक) में शास्त्रि-परिषद् का अधिवेशन हुआ था। ऐसा आचार्य विद्यानन्द जी महारज के मुख से बातचीत में सुना है। 1925 में जयपुर में अधिवेशन हुआ। शास्त्रि-परिषद् का जयपुर अधिवेशन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। इस अधिवेशन के लगभग 20 वर्ष पूर्व शास्त्रि-परिषद् की स्थापना हो चुकी थी। इसमें श्री पं. जवाहरलाल शास्त्री, श्री पं. नानूलाल शास्त्री, श्री पं. शंकरदास शास्त्री, श्री पं. इन्द्रलाल शास्त्री आदि जयपुर के तत्कालीन दिग्गज विद्वानों ने भाग लेकर परिषद् की रीति - नीति का समर्थन किया था। श्री पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री भी इसमें उपस्थित थे।

जब चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी महाराज (दक्षिण) और प्रशान्तमूर्ति आचार्य शान्तिसागरजी महाराज (छाणी) का ब्यावर नगर में एक साथ चातुर्मास हुआ था, तब वहाँ की समाज ने शास्त्रि-परिषद् का अधिवेशन बुलाया था। शास्त्रि-परिषद् का यह बड़े ठाट-बाट का अधिवेशन था, जिसे दोनों ही आचर्य-संघों का आशीर्वाद मिला था। इस अधिवेशन में दक्षिण भारत से श्री पं. जिनदास शास्त्री, श्री पं. वासुदेव नेमिनाथ शास्त्री आदि तथा उत्तर भारत से लगभग सभी सर्वमान्य विद्वान् उपस्थित हुये थे। इसमें हुई अनेक सैद्धान्तिक चर्चाओं से सामाजिक स्थितिकरण हुआ। इसकी अध्यक्षता दानवीर सेठ राव जी सखाराम दोशी, सोलापुर ने की थी। श्री पं. इन्द्रलाल शास्त्री, श्री पं. इंद्रमणि वैद्य, श्री लाला हुलाशरायजी, श्री पं. लालारामजी, श्री पं. मक्खनलाल जी, श्री पं. लोकनाथ शास्त्री, श्री पं. नानूलाल जी, श्री पं. रामप्रसाद जी, श्री पं. कुंज बिहारीलालजी, श्री पं. नन्दनलालजी शास्त्री (जो आगे मुनि सुधर्मसागरजी बने) आदि विद्वानों ने आर्षमार्ग की प्रतिष्ठापना में अपना महनीय अवदान दिया। मोरेना में जब परम पूज्य आचार्य शन्तिसागरजी ने ससंघ चातुर्मास किया था। उस अधिवेशन में विद्यावारिधि पं. खूबचन्दजी शास्त्री, धर्मरत्न पं. लालारामजी शास्त्री, धर्मवीर पंडित श्री लालाजी पाटनी अलीग़ढ, विद्यालंकार पं. इन्द्रलालजी शास्त्री, पं. धन्नालालजी कासलीवाल इंदौर, पं. वंशीधरजी न्यायतीर्थ, सोलापुर, पं. रामप्रसादजी शास्त्री, बम्बई, पं. पन्नालाल जी सोनी, मोरेना, विद्यावारिधि वादीभकेसरी, पं. मक्खनलालजी शास्त्री आदि अनेक महारथी विद्वान् सम्मिलित हुये थे। अधिवेशन धूमधाम से हुआ और अधिवेशन की प्रत्येक कार्यवाही के साथ परम पूज्य आचार्य शन्तिसागरजी एवं उनके संघ का आशीर्वाद था ।

4. विद्वत् प्रशिक्षण शिविर

28 अक्टूबर, 1987 के मैनपुरी अधिवेशन में निर्णय लिया गया कि शास्त्रि-परिषद् दशलक्षण आदि पर्वों पर विद्वान् भेजने की व्यवस्था करेगी। नवोदित विद्वानों को विधि विधान, सिद्धान्त, आगम, दर्शन, एवं प्रवचनकला वास्तु, ज्योतिष आदि में निष्णात बनाने के लिए परिषद् ने 1993 से सागर में विद्वत् प्रशिक्षण शिविर का आयोजन करना प्रारम्भ किया जो कोलकाता, मेरठ, मालपुरा, झांसी, दिल्ली, छपारा, भोपाल, चंदेरी, श्रवणवेलगोला, बेंगलोर, मुम्बई से अद्यावधि जारी है, परिणामतः युवा विद्वान् भी प्रतिभाशाली बनकर समाज में जागृति का परचम लहरा रहे हैं। *अभी जयपुर में भट्टारक की नसिया में आर्यिकारत्न 105 स्वस्तिभूषण माताजी ससंघ सान्निध्य में शिविर 22 मई से 27 मई तक चल रहा है।

 

5. सत् साहित्य प्रणयन

समाज में अनुकूलता एवं सौहार्द लाने के लिए आधारयुक्त साहित्य का प्रणयन किया गया। श्री पं. लालाराम शास्त्री ने अनेक धार्मिक ग्रन्थों का प्रथम बार अनुवाद किया। जिनके अनुवादों का आधार लेकर पश्चाद् वर्ती विद्वानों ने साहित्य - प्रणयन में अपना योगदान किया है। परिषद् के विद्वानों के अथक प्रयासों से समज में धर्म के प्रति रूचि एवं स्वाध्याय की ललक जाग्रत हुई अतः श्री पं. इन्द्रलाल शास्त्री के मंत्रित्वकाल में व्याख्यानवाचस्पति श्री पं. देवकीनन्दन जी, पं. वंशीधर जी शास्त्री के सम्पादकत्व में शास्त्रि - परिषद् के मुखपत्र 'जैन सिद्धान्त' का प्रकाशन हुआ। श्री पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री इसके सहसम्पादक रहे। यह पत्र 1933 से 1940 तक 7 वर्ष निरन्तर चलता रहा। इस पत्र में सुन्दर शास्त्रीय लेखों का चयन रहता था। मासिक पत्रों में यह जैन सिद्धान्त ही एक ऐसा पत्र था, जो समाज की विवाद-पूर्ण चर्चाओं में उचित और आगमानुसारी समाधान देता था, किन्तु समारोह प्रेमी धनाढय जैन समाज इस पत्र की उपयोगिता को नहीं समझ सका और अर्थाभाव में यह महत्त्वपूर्ण पत्र बन्द हो गया। अब शास्त्रि - परिषद् ने जनवरी 1997 से पुनः एक त्रैमासिक बुलेटिन का प्रकाशन प्रारम्भ किया है। *समय - समय पर प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जैन, फिरोजाबाद; डॉ. जयकुमार जैन,मुजफ्फनगर और डॉ. श्रेयांसकुमार जैन, बड़ौत, अरुण जी का परामर्श* / मार्गदर्शन इसे प्राप्त हुआ है। अद्यावधि परिषद् ने शताधिक ग्रन्थों का प्रकाशन कर समाज में समय - समय पर होने वाली विकृतियों का निरसन किया है। परिषद् द्वारा प्रकाशित साहित्य का आज भी सम्पूर्ण जैन समाज में प्रमाणिकता का आधार है। लोग इसे पढ़कर जिज्ञासाओं का समाधान एवं ज्ञानवर्धन करते है।

6. परिषद् द्वारा किये गये विशेष कार्य

12-13 फरवरी,1985 में गंजबासौदा अधिवेशन में चम्पाबेन के कल्पित जातिस्मरण के आधार पर श्री कानजी भाई को धातकीखण्डद्वीप में आगामी तथाकथित सूर्यकीर्ति तीर्थंकर घोषित किये जाने का प्रबल विरोध हुआ। इसके बाद 30 अप्रैल, 1979 को हस्तिनापुर में शास्त्रि - परिषद् का अधिवेशन हुआ, जिसमें सूर्यकीर्ति की मूर्ति निर्मित किये जाने का विरोध किया गया तथा सोनगढ़ एवं टोडरमल स्मारक, जयपुर से प्रकाशित साहित्य की विकृतियाँ समाज के सामने स्पष्ट की गईं। 19 अप्रैल, 1986 को आयोजित सुजानगढ़ अधिवेशन में विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग से प्राकृत एवं अपभ्रंश के विकास के लिए अनुरोध किया गया।

 

7. पुरस्कार

पुरस्कार की प्रथम संयोजना सन् 1925 जयपुर अधिवेशन में की गई, जिसमें श्री पं. मक्खनलालजी शास्त्री और श्री पं. खूबचन्द्र शास्त्री को विद्यावारिधि उपाधि से सम्मानित कर विद्वानों के सम्मान की श्रृंखला को प्रारम्भ किया गया था। प्रतिभावान, कुशल लेखक, अनुवादक, प्रखरवक्ता, शोधकर्त्ता विद्वानों को परिषद् पुरस्कार प्रदान कर उनके कृतित्व को बहुमान देती है। जिससे युवाओं को प्रेरणा मिलती है एवं उनका गौरव बढ़ता है। शास्त्रि - परिषद् ने समय - समय पर आचार्यों, मुनिराजों, आर्यिका माताओं एवं विद्वानों के अभिनंदन ग्रन्थ एवं स्मृति ग्रन्थों का प्रकाशन किया। यथा - आचार्य महावीर कीर्ति स्मृति ग्रन्थ 1978, आचार्य धर्मसागर स्मृति ग्रन्थ, आचार्य वीरसागर स्मृति ग्रन्थ 1990, गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी अभिनंदन ग्रन्थ 1992, आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति ग्रन्थ 1998, उपाध्याय ज्ञानसागर अभिवंदना पुष्प, विद्वत् अभिनंदन ग्रन्थ 1976, पं. बाबूलाल जमादार अभिनंदन ग्रन्थ 1981, पं. सुनहरीलाल अभिनंदन ग्रन्थ 1983, पं. लालबहादुर शास्त्री अभिनंदन ग्रन्थ 1986, पं. रतनचंद मुख्तार व्यत्कित्व एवं कृतित्व 1989, पं. मक्खनलाल शास्त्री अभिनंदन ग्रन्थ, डॉ. महेन्द्रकुमार स्मृति ग्रन्थ 1996, डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल अभिनंदन ग्रन्थ 1998, पं. गुलाबचंद्र पुष्प अभिनंदन ग्रन्थ 2001, प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश अभिनंदन ग्रन्थ 2004, डॉ. शेखरचंद्र जैन अभिनंदन ग्रन्थ 2004 आदि।

वर्तमान में परिषद के अध्यक्ष डॉ श्रेयांस कुमार जी जैन बड़ौत, महामंत्री ब्र. जयकुमार जी निशान्त भैया टीकमगढ़, पंडित विनोद जी रजवांस आदि के अथक श्रम से शास्त्रि - परिषद् निरंतर जैन संस्कृति के संरक्षण, संवर्द्धन में अपनी भूमिका का निर्वाहन कर रही है।

इस प्रकार शास्त्रि - परिषद् बहु आयामों के साथ देश, धर्म और समाज की सेवा करते हुए देव-शास्त्र-गुरु के संरक्षण में निरंतर संलग्न है।

 

 

 

 

अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रि-परिषद् का इतिहास

अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रि-परिषद् दिगम्बर जैन परम्परा में देव-शास्त्र-गुरु, जैनधर्म, दर्शन और संस्कृति के संरक्षण तथा दिगम्बर जैन आर्षमार्गीय साहित्य के प्रकाशन एवं प्रचार-प्रसार में समर्पित आर्ष परम्परा के अनुयायी विद्वानों की एक जागरुक संस्था है, जिसे अद्यावधि अनेक मुनिराजों का आशीर्वाद प्राप्त है।

1. उद्भव एवं विकास

17 वीं - 18 वीं शताब्दी में मुगलों के प्रभाव से दिगम्बर जैन मुनियों का विहार अवरुद्ध होने से सर्वज्ञ की देशना जन - जन तक नहीं पहुँच पा रही थी। लोगों में समयानुकूल स्वच्छन्दता आने लगी, सामाजिक विकृतियों का प्रादुर्भाव होने लगा, तब कुछ सुधारभासियों ने विजातीय विवाह, विधवा विवाह, स्पृश्यास्पृश्य भेद, वर्णव्यवस्था आदि विषयों पर ऐकान्तिक विचारों का आग्रह किया तो 19 वीं शताब्दी के अंत एवं 20 वीं शताब्दी के प्रथम चरण में तात्कालीन जैनागम के प्रबुद्ध विद्वान् मनीषियों ने शास्त्र सम्मत विचारधारा रखी और आगमानुसार श्रावकाचार के परिप्रेक्ष्य में सामाजिक गतिविधियों के सुधार करने का संकल्प लिया। अनुकूल विचारधारा वाले विद्वानों ने 1904 में संगठित होकर देव-शास्त्र-गुरु के संरक्षण का कार्य किया इस संगठन का नाम अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परिषद् गया।

2. परिषद् के ह्लास एवं उत्कर्ष का काल :

सन् 1940 से 1965 तक लगभग 25 वर्ष का समय देश में आजादी की लड़ाई, स्वतंत्रता, कानून व्यवस्था एवं आर्थिक संकट के दौर का समय था इस समय सामाजिक, धार्मिक, एवं राजनैतिक व्यवस्थाएँ गड़बड़ा गईं थी। अतः परिषद् की गतिविधियाँ भी मंदता को प्राप्त हो गईं ।

इसका कारण कुछ तो विद्वानों का निधन था तथा उस समय राजनैतिक आन्दोलन भी इतने उग्र हो गये थे की लोगों को सामाजिक समस्याओं पर सोचने का अवसर ही नहीं था। सन् 1939 में द्वितीय महायुद्ध छिड़ गया। हिटलर अनेक योरोपीय देशों को दबाता हुआ आगे बढ़ रहा था। उसने आनन - फानन में फ्रांस पर अधिकार किया, नार्वे में सेना उतार दी, इटली की कमर तोड़ दी, इंग्लैंड पर भीषण बम गिराये। इस आतंक से दुनिया दहल रही थी। फ्रांस पर कब्जा करने के बाद तो भारत में यह आशंका होने लगी थी। वह यहाँ भी बमबारी करेगा। इन सब कारणों से शास्त्रि-परिषद् की गतिविधियाँ कुछ क्षीण हो गई थी।

समाज में सुधारभासियों ने पुनः जोर पकड़ा। कुछ सुधारवाद के नाम पर स्वच्छन्द बन गये। आर्षमार्ग की अवहेलना होनी लगी, तब श्री इन्द्रलाल शास्त्री की अध्यक्षता तथा श्री पं. अजितकुमारजी शास्त्री के महामन्त्रित्व में शास्त्रि-परिषद् ने पुनः जोर पकड़ा और समाज को जाग्रत किया। ऐकान्तिक विचारधाराओं का डटकर विरोध हुआ। तदन्तर डॉ. लालबाहदुर शास्त्री ने अध्यक्ष पद तथा श्री पं. बाबूलाल जमादार ने महामंत्री पद सम्हाल कर शास्त्रि परिषद् में पुनः प्राण फूंके ।

 

3. अधिवेशन

परिषद् के विद्वानों को भारत की सम्पूर्ण जैन समाज में बहुमान प्राप्त है जगह - जगह परिषद् का अधिवेशन बुलाकर समाज गौरवान्वित होती है। 1924 ई. में पं. धन्नालाल जी की अध्यक्षता में बेलगाँव (कर्नाटक) में शास्त्रि-परिषद् का अधिवेशन हुआ था। ऐसा आचार्य विद्यानन्द जी महारज के मुख से बातचीत में सुना है। 1925 में जयपुर में अधिवेशन हुआ। शास्त्रि-परिषद् का जयपुर अधिवेशन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। इस अधिवेशन के लगभग 20 वर्ष पूर्व शास्त्रि-परिषद् की स्थापना हो चुकी थी। इसमें श्री पं. जवाहरलाल शास्त्री, श्री पं. नानूलाल शास्त्री, श्री पं. शंकरदास शास्त्री, श्री पं. इन्द्रलाल शास्त्री आदि जयपुर के तत्कालीन दिग्गज विद्वानों ने भाग लेकर परिषद् की रीति - नीति का समर्थन किया था। श्री पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री भी इसमें उपस्थित थे।

जब चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी महाराज (दक्षिण) और प्रशान्तमूर्ति आचार्य शान्तिसागरजी महाराज (छाणी) का ब्यावर नगर में एक साथ चातुर्मास हुआ था, तब वहाँ की समाज ने शास्त्रि-परिषद् का अधिवेशन बुलाया था। शास्त्रि-परिषद् का यह बड़े ठाट-बाट का अधिवेशन था, जिसे दोनों ही आचर्य-संघों का आशीर्वाद मिला था। इस अधिवेशन में दक्षिण भारत से श्री पं. जिनदास शास्त्री, श्री पं. वासुदेव नेमिनाथ शास्त्री आदि तथा उत्तर भारत से लगभग सभी सर्वमान्य विद्वान् उपस्थित हुये थे। इसमें हुई अनेक सैद्धान्तिक चर्चाओं से सामाजिक स्थितिकरण हुआ। इसकी अध्यक्षता दानवीर सेठ राव जी सखाराम दोशी, सोलापुर ने की थी। श्री पं. इन्द्रलाल शास्त्री, श्री पं. इंद्रमणि वैद्य, श्री लाला हुलाशरायजी, श्री पं. लालारामजी, श्री पं. मक्खनलाल जी, श्री पं. लोकनाथ शास्त्री, श्री पं. नानूलाल जी, श्री पं. रामप्रसाद जी, श्री पं. कुंज बिहारीलालजी, श्री पं. नन्दनलालजी शास्त्री (जो आगे मुनि सुधर्मसागरजी बने) आदि विद्वानों ने आर्षमार्ग की प्रतिष्ठापना में अपना महनीय अवदान दिया। मोरेना में जब परम पूज्य आचार्य शन्तिसागरजी ने ससंघ चातुर्मास किया था। उस अधिवेशन में विद्यावारिधि पं. खूबचन्दजी शास्त्री, धर्मरत्न पं. लालारामजी शास्त्री, धर्मवीर पंडित श्री लालाजी पाटनी अलीग़ढ, विद्यालंकार पं. इन्द्रलालजी शास्त्री, पं. धन्नालालजी कासलीवाल इंदौर, पं. वंशीधरजी न्यायतीर्थ, सोलापुर, पं. रामप्रसादजी शास्त्री, बम्बई, पं. पन्नालाल जी सोनी, मोरेना, विद्यावारिधि वादीभकेसरी, पं. मक्खनलालजी शास्त्री आदि अनेक महारथी विद्वान् सम्मिलित हुये थे। अधिवेशन धूमधाम से हुआ और अधिवेशन की प्रत्येक कार्यवाही के साथ परम पूज्य आचार्य शन्तिसागरजी एवं उनके संघ का आशीर्वाद था ।

4. विद्वत् प्रशिक्षण शिविर

28 अक्टूबर, 1987 के मैनपुरी अधिवेशन में निर्णय लिया गया कि शास्त्रि-परिषद् दशलक्षण आदि पर्वों पर विद्वान् भेजने की व्यवस्था करेगी। नवोदित विद्वानों को विधि विधान, सिद्धान्त, आगम, दर्शन, एवं प्रवचनकला वास्तु, ज्योतिष आदि में निष्णात बनाने के लिए परिषद् ने 1993 से सागर में विद्वत् प्रशिक्षण शिविर का आयोजन करना प्रारम्भ किया जो कोलकाता, मेरठ, मालपुरा, झांसी, दिल्ली, छपारा, भोपाल, चंदेरी, श्रवणवेलगोला, बेंगलोर, मुम्बई से अद्यावधि जारी है, परिणामतः युवा विद्वान् भी प्रतिभाशाली बनकर समाज में जागृति का परचम लहरा रहे हैं। *अभी जयपुर में भट्टारक की नसिया में आर्यिकारत्न 105 स्वस्तिभूषण माताजी ससंघ सान्निध्य में शिविर 22 मई से 27 मई तक चल रहा है।

 

5. सत् साहित्य प्रणयन

समाज में अनुकूलता एवं सौहार्द लाने के लिए आधारयुक्त साहित्य का प्रणयन किया गया। श्री पं. लालाराम शास्त्री ने अनेक धार्मिक ग्रन्थों का प्रथम बार अनुवाद किया। जिनके अनुवादों का आधार लेकर पश्चाद् वर्ती विद्वानों ने साहित्य - प्रणयन में अपना योगदान किया है। परिषद् के विद्वानों के अथक प्रयासों से समज में धर्म के प्रति रूचि एवं स्वाध्याय की ललक जाग्रत हुई अतः श्री पं. इन्द्रलाल शास्त्री के मंत्रित्वकाल में व्याख्यानवाचस्पति श्री पं. देवकीनन्दन जी, पं. वंशीधर जी शास्त्री के सम्पादकत्व में शास्त्रि - परिषद् के मुखपत्र 'जैन सिद्धान्त' का प्रकाशन हुआ। श्री पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री इसके सहसम्पादक रहे। यह पत्र 1933 से 1940 तक 7 वर्ष निरन्तर चलता रहा। इस पत्र में सुन्दर शास्त्रीय लेखों का चयन रहता था। मासिक पत्रों में यह जैन सिद्धान्त ही एक ऐसा पत्र था, जो समाज की विवाद-पूर्ण चर्चाओं में उचित और आगमानुसारी समाधान देता था, किन्तु समारोह प्रेमी धनाढय जैन समाज इस पत्र की उपयोगिता को नहीं समझ सका और अर्थाभाव में यह महत्त्वपूर्ण पत्र बन्द हो गया। अब शास्त्रि - परिषद् ने जनवरी 1997 से पुनः एक त्रैमासिक बुलेटिन का प्रकाशन प्रारम्भ किया है। *समय - समय पर प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जैन, फिरोजाबाद; डॉ. जयकुमार जैन,मुजफ्फनगर और डॉ. श्रेयांसकुमार जैन, बड़ौत, अरुण जी का परामर्श* / मार्गदर्शन इसे प्राप्त हुआ है। अद्यावधि परिषद् ने शताधिक ग्रन्थों का प्रकाशन कर समाज में समय - समय पर होने वाली विकृतियों का निरसन किया है। परिषद् द्वारा प्रकाशित साहित्य का आज भी सम्पूर्ण जैन समाज में प्रमाणिकता का आधार है। लोग इसे पढ़कर जिज्ञासाओं का समाधान एवं ज्ञानवर्धन करते है।

6. परिषद् द्वारा किये गये विशेष कार्य

12-13 फरवरी,1985 में गंजबासौदा अधिवेशन में चम्पाबेन के कल्पित जातिस्मरण के आधार पर श्री कानजी भाई को धातकीखण्डद्वीप में आगामी तथाकथित सूर्यकीर्ति तीर्थंकर घोषित किये जाने का प्रबल विरोध हुआ। इसके बाद 30 अप्रैल, 1979 को हस्तिनापुर में शास्त्रि - परिषद् का अधिवेशन हुआ, जिसमें सूर्यकीर्ति की मूर्ति निर्मित किये जाने का विरोध किया गया तथा सोनगढ़ एवं टोडरमल स्मारक, जयपुर से प्रकाशित साहित्य की विकृतियाँ समाज के सामने स्पष्ट की गईं। 19 अप्रैल, 1986 को आयोजित सुजानगढ़ अधिवेशन में विश्‍वविद्यालय अनुदान आयोग से प्राकृत एवं अपभ्रंश के विकास के लिए अनुरोध किया गया।

 

7. पुरस्कार

पुरस्कार की प्रथम संयोजना सन् 1925 जयपुर अधिवेशन में की गई, जिसमें श्री पं. मक्खनलालजी शास्त्री और श्री पं. खूबचन्द्र शास्त्री को विद्यावारिधि उपाधि से सम्मानित कर विद्वानों के सम्मान की श्रृंखला को प्रारम्भ किया गया था। प्रतिभावान, कुशल लेखक, अनुवादक, प्रखरवक्ता, शोधकर्त्ता विद्वानों को परिषद् पुरस्कार प्रदान कर उनके कृतित्व को बहुमान देती है। जिससे युवाओं को प्रेरणा मिलती है एवं उनका गौरव बढ़ता है। शास्त्रि - परिषद् ने समय - समय पर आचार्यों, मुनिराजों, आर्यिका माताओं एवं विद्वानों के अभिनंदन ग्रन्थ एवं स्मृति ग्रन्थों का प्रकाशन किया। यथा - आचार्य महावीर कीर्ति स्मृति ग्रन्थ 1978, आचार्य धर्मसागर स्मृति ग्रन्थ, आचार्य वीरसागर स्मृति ग्रन्थ 1990, गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी अभिनंदन ग्रन्थ 1992, आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति ग्रन्थ 1998, उपाध्याय ज्ञानसागर अभिवंदना पुष्प, विद्वत् अभिनंदन ग्रन्थ 1976, पं. बाबूलाल जमादार अभिनंदन ग्रन्थ 1981, पं. सुनहरीलाल अभिनंदन ग्रन्थ 1983, पं. लालबहादुर शास्त्री अभिनंदन ग्रन्थ 1986, पं. रतनचंद मुख्तार व्यत्कित्व एवं कृतित्व 1989, पं. मक्खनलाल शास्त्री अभिनंदन ग्रन्थ, डॉ. महेन्द्रकुमार स्मृति ग्रन्थ 1996, डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल अभिनंदन ग्रन्थ 1998, पं. गुलाबचंद्र पुष्प अभिनंदन ग्रन्थ 2001, प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश अभिनंदन ग्रन्थ 2004, डॉ. शेखरचंद्र जैन अभिनंदन ग्रन्थ 2004 आदि।

वर्तमान में परिषद के अध्यक्ष डॉ श्रेयांस कुमार जी जैन बड़ौत, महामंत्री ब्र. जयकुमार जी निशान्त भैया टीकमगढ़, पंडित विनोद जी रजवांस आदि के अथक श्रम से शास्त्रि - परिषद् निरंतर जैन संस्कृति के संरक्षण, संवर्द्धन में अपनी भूमिका का निर्वाहन कर रही है।

इस प्रकार शास्त्रि - परिषद् बहु आयामों के साथ देश, धर्म और समाज की सेवा करते हुए देव-शास्त्र-गुरु के संरक्षण में निरंतर संलग्न है।

 

 

 

 


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